चार दिनों का
सब्र भी नहीं किसी को
पल पल भारी लगता
जीवन का
जब अहम् हो गया
जान से प्यारा
क्या करना फिर
दोस्त और दोस्ती का
जो भी
रह गया होड़ में पीछे
वही हारा कहलाता
हार किसी को मंज़ूर नहीं
क्या अपना क्या पराया
प्यार मोहब्बत गए भाड़ में
हर इंसान
फिर दुश्मन लगता
21-08-2012
673-33-08-12,
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