Thursday, April 21, 2011

लगन और मेहनत

कभी अंग्रेजी में कमजोर रहीं रेणु US यूनिवर्सिटी की वीसी बनीं चिदानंद राजघट्टा
वॉशिंगटन : आज जब भारतीय मूल के अमेरिकी स्पेस शटल से अंतरिक्ष में जा रहे हैं , 
कांग्रेस व गवर्नर पद के लिए चुनाव लड़ रहे हैं और फाइनैंशल संस्थानों के अध्यक्ष बन रहे हैं। ऐसे समय में एक ठेठ प्रवासी भारतीय का किसी अमेरिकी यूनिवर्सिटी का वाइस चांसलर बनना और अमेरिकी यूनिवर्सिटीज का प्रेसिडेंट चुना जाना काफी महत्वपूर्ण है। 
यही नहीं, अमेरिका के एजुकेशन वर्ल्ड में किसी प्रवासी भारतीय का महत्वपूर्ण पद पाना वहां के भारतीय समुदाय और यूनिवर्सिटी दोनों के लिए प्रतिष्ठा का विषय है। 
सोमवार को ह्यूस्टन यूनिवर्सिटी के बोर्ड ऑफ रीजेन्ट्स ने आधिकारिक तौर पर
रेणु खाटोर को अगला मुख्य कार्यकारी चुन लिया। इसके बाद से ही खाटोर मीडिया में छाई हुई हैं। 
यूपी के फरुखाबाद से अमेरिका के फ्लोरिडा तक और कानपुर से ह्यूस्टन तक की उनकी यात्रा 
यहां के मीडिया में सुर्खियों में है।
खाटोर शादी के बाद 1974 में अपने पति के साथ पहली बार अमेरिका आईं।
उनकी अंग्रेजी की समझ काफी कमजोर थी, वह अंग्रेजी बोल नहीं पाती थीं। 
आप इस बात से
अंदाजा लगा सकते हैं कि स्कूल एडमिशन के डीन के साथ जब उनका इंटरव्यू हो रहा
था, तब उनके पति सुरेश खाटोर दोनों के लिए ट्रांसलेटर की भूमिका निभा रहे थे।
सुरेश खाटोर परड्यू यूनिवर्सिटी में इंजीनियरिंग के स्टूडेंट्स थे।
इसके बाद खाटोर ने पीछे मुड़ के नहीं देखा। 
उन्होंने कड़ी मेहनत की और भाषा पर पकड़ बनाने में कामयाब रहीं। 
1983 में सुरेश को दक्षिणी फ्लोरिडा यूनिवर्सिटी से पढ़ाने का ऑफर मिला और खाटोर दंपति 
फ्लोरिडा चले आए। रेणु का सिलेक्शन भी यूनिवर्सिटी में अस्थायी तौर पर हो गया।
लेकिन दो दशकों में वह अपनी प्रतिभा और लगन से यूनिवर्सिटी की टॉप फैकल्टी में पहुंच गईं।
उनकी कामयाबी ने ह्यूस्टन यूनिवर्सिटी का ध्यान अपनी ओर खींचा।
सोमवार को ह्यूस्टन क्रॉनिकल ने लिखा है कि 13वें यूनिवर्सिटी प्रेसिडेंट
समारोह में खाटोर बिना नोट्स के ही बोलीं और अपनी सरल बोलचाल के तरीके से सबका
दिल जीत लिया। 
कदम-कदम पर उनके पति ने भी उनका साथ दिया और उनका मनोबल बढ़ाया।
अब वह उनके जूनियर हैं।
खाटोर का आगे का रास्ता आसान नहीं है।
देश की सबसे बड़ी यूनिवर्सिटियों में से
एक ह्यूस्टन में तकरीबन 3 हजार फैकल्टी और 50 हजार से अधिक स्टूडेंट हैं।
इतनी बड़ी यूनिवर्सिटी का कामकाज संभालना खुद में एक बड़ी बात है। 
खाटोर को अधिक से अधिक फंड जुटाना होगा 
और दान देने वाले लोगों को अधिक से अधिक चंदा देने के लिए
प्रेरित करना होगा। यही नहीं, अच्छी से अच्छी फैकल्टी को भी यूनिवर्सिटी से
जोड़ने का काम उन्हें करना होगा। इन दोनों जिम्मेदारियों को कामयाबी के साथ
अंजाम देने के लिए उन्हें प्रवासी भारतीयों का सहयोग लेना होगा।
हालांकि खाटोर को इसका काफी तजुर्बा है। 
खाटोर जब प्रोवोस्ट के पद पर थीं, तब यूनिवर्सिटी को 
डॉ. किरण पटेल और उनकी पत्नी पल्लवी की तरफ से 18.5 मिलियन डॉलर
का डोनेशन मिला था। टेक्सास में उतने ही अमीर भारतीय मूल के अमेरिकी रहते हैं,
जितने कि फ्लोरिडा में और वे ऐसी स्थिति में पहुंच गए हैं, जहां पर एजुकेशन,
प्रतिष्ठा और गर्व का विषय बन गया है। 
(समाचार ,2007)

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