Tuesday, June 28, 2011

परिवेश

परिवेश
एक परिवेश सबके के लिए अच्छा हो ऐसा आवश्यक नहीं है
भिन्न मानसिकताएं और भिन्न विचार परिवेश को भिन्न भिन्न तरीके
  से देखेंगी
महत्वपूर्ण वह है
,परिवेश ,आपके अनुकूल नहीं होने पर बिना संयम खोये ,
सब्र के साथ उसको सहना और बिना थके
  बदलने का प्रयत्न करना आवश्यक है ,
२८-०६-२०११
डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर" 

प्रशंसा

प्रशंसा सब को अच्छी लगती है,शायद  ही कोई होगा जिसे प्रशंसा सुनना अच्छा नहीं लगता है, प्रशंसा आवश्यक है ,अच्छे कार्य की प्रशंसा नहीं करना अनुचित है
पर ये कतई आवश्यक नहीं है, कि अच्छा करने पर ही प्रशंसा की जाए, प्रोत्साहन के लिए साधारण कार्य की प्रशंसा भी कई बार बेहतर करने को प्रेरित करती है,पर देखा गया है लोग झूंठी प्रशंसा भी करते हैं ,खुश करने के लिए या कडवे सत्य से बचने के लिए या दिखावे के लिए .पर इसके परिणाम घातक हो सकते हैं .व्यक्ति सत्य से दूर जा सकता है,एवं वह अति आत्मविश्वाश और भ्रम का शिकार हो सकता है, जो घातक सिद्ध हो सकता है.वास्तविक स्पर्धा में वह पीछे रह सकता है या असफल हो सकता है इसलिए प्रशंसा कब और कितनी करी जाए,यह जानना भी आवश्यक है.साथ ही झूंठी प्रशंसा को पहचानना भी आवश्यक है .इसलिए सहज भाव से संयमित प्रशंसा करें, और सुनें ,प्रशंसा से अती आत्मविश्वाश से ग्रसित होने से बचें.प्रशंसा करने में कंजूसी भी नहीं बरतें .
28-06-2011
लेखक:डा.राजेंद्र तेला "निरंतर"

Monday, June 27, 2011

पीढियां

पीढियां
( लघु कथा )
डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"
पैदा होते ही काफी गंभीर बीमारी से ग्रसित हुआ,माता पिता की मेहनत और प्रयत्नों मुझे नया जीवन दिया | 
पिता एक अफसर थे
मैं आरम्भ से ही उनका लाडला था,रूठता,नखरे करता,बहुत ही उद्दंड और उछ्रंखल था, 
स्कूल में मास्टर और  उधर सारा मोहल्ला परेशान था
एक तमाचा भी कभी नहीं खाया था,माता पिता,मास्टर मुझे बहुत समझाते थे पर कभी समझ नहीं आया| शैतानी मेरा परम शौक था,
मेरे हर कार्य कलाप को माता पिता ने बर्दाश्त किया ,अच्छी स्कूल और प्रसिद्द कॉलेज में भारती  करवाया ,मेरे पास वो सब था जो अधिकतर लोगों की किस्मत में नहीं होता लेकिन मैंने कभी कद्र नहीं करी,कोई भी इच्छा पूरी नहीं होती तो उन्हें कोसता ,पढायी के अलावा हर हरकत में लिप्त था|किसी तरह पढ़ लिख कर डाक्टर बना, उसमें भी उन्होंने मेरी मदद करी,फिर मेरी  शादी हुयी,सुन्दर पत्नी मिली उधर  प्रैक्टिस भी चल निकली ,
दो साल बाद पुत्र की प्राप्ती हुयी ,बहुत चाव से उसका नाम सुशील रखा ,वो भी सब का लाडला था बचपन से ही  सुशील की हरकतें भी मेरे जैसी ही थी,कोई बात नहीं सुनता था ,मेरे नक़्शे कदम पर चल रहा था  ,दादा दादी का लाड उसे भी भरपूर मिल रहा था ,धीरे धीरे सुशील  का व्यवहार मेरे लिए  निरंतर  चिंता और विषाद का कारण बन गया ,माता पिता को समझाता था  ,बिगड़ जाएगा ,इतना लाड मत किया करो ,कभी डांट  भी लगाया करो,एक दिन बात बढ़ गयी मैं दोनों पर काफी क्रोधित हुआ जब बोलना बंद किया तो  पिताजी बोले ,
बेटा हम तो वो ही कर रहे हैं जो तुम्हारे साथ किया था,अगर तुम बिगड़े हुए हो तो सुशील  भी बिगड़ जाएगा ,जूता काटता  है या नहीं पहनने  वाला  ही जानता  है,काटता हो तो ठीक कराना पड़ता है,तब तक दर्द भुगतना पड़ता है, उसे फैंकते नहीं हैं | यह सुनते ही मैं निरुत्तर हो गया
आज अहसास हुआ,मैंने माता पिता के प्यार की कद्र नहीं करी,अब,जब मेरा पुत्र वो ही कर रहा जो मैंने किया तो मुझे गलत लगता है
लड़कपन  और युवावस्था में कई बातें समझ नहीं आती ,अच्छी बात भी बुरी लगती है ,दो  पीढ़ियों में सोच का फर्क होता है ,और दोनों को ही एक दुसरे को समझना पड़ता है.हम तुम्हारी पीड़ा समझते हैं अब केवल  सब्र रखो अपना कर्तव्य करो, उसको समझाते रहो परमात्मा पर विश्वाश रखो सब ठीक होगा
मुझे पता नहीं था मेरा पुत्र कमरे के बाहर खडा सब सुन रहा था ,कई दिन बाद मुझे इस बात का पता चला, खैर  उसके बाद ,अगले दिन से ही पुत्र का व्यवहार बदल गया फिर  परिवार में किसी को कोई शिकायत नहीं रही |
आज वो भी प्रसिद्द डाक्टर है , और एक पुत्र का पिता है, पर एक सत्य मेरा पीछा नहीं छोड़ता , मेरे माता पिता से मेरा युवावस्था का व्यवहार मुझे अभी तक कचोटता  है, हालांकि कई बार माता पिता से माफी माँगी थी और उन्होंने हंस कर माफ़ कर दिया था | पर फिर भी मेरा मन उस समय की बातों से सदा दुखी रहता है| अब मेरे माता पिता इस संसार में नहीं हैं पर उनकी दी हुयी सीख सदा याद रहती है,साथ ही पूरी कोशिश करता हूँ की सब तक उसे पहुँचाऊँ अब में भी दादा बन गया हूँ और पोता भी वैसे ही करता है जैसा मैंने और मेरे पुत्र ने किया था|
27-06-2011

Thursday, June 23, 2011

सत्य कहना और सत्य सुनना

'सत्यमेव जयते '
सत्य की जीत निश्चित है
मगर सत्य कहना 
उतना ही मुश्किल है 
सत्य कहने के लिए ,
हिम्मत और होंसला तो चाहिए
 साथ ही 
प्रतिरोध और विरोध के लिए भी
तैयार रहना चाहिए
सत्य कहने से पहले
सत्य सुनने की शक्ती भी 
आवश्यक है
या कहिये सत्य कहने से
सत्य सुनना ज्यादा कठिन होता है
जो सत्य सुन सकता है
वही सत्य कहने का अधिकारी है
सत्य कहना और सुनना
निरंतर परिश्रम या अभ्यास से नहीं आता
मन का निश्छल और दुर्भावना रहित
होना आवश्यक है

सत्य बोलने का अर्थ है 
स्वयं का आवरण हटाने का संघर्ष
23-06-2011
डा राजेंद्र तेला,"निरंतर"

Wednesday, June 22, 2011

मित्र और मित्रता

मित्र एक ऐसा रिश्तेदार होता है
जिसे चुना जा सकता है,
परमात्मा का दिया एक वरदान  होता है
मित्र एक आदर्श भ्राता होता है.
जो कभी छोटे कभी बड़े भ्राता का
कर्तव्य निभाता है वो इंसान भाग्यशाली है 
जिसका कोई सच्चा मित्र होता है
सच्चा मित्र ही आपको 
आपके सत्य से 
अवगत करा सकता है
संत सिद्धार्थ ने कहा है
"सच्चा मित्र वही है,  
जो भरपूर ईमानदारी से
आपके अहंकार को ठेस पहुँचाएं  
फिर भी आप उसके साथ के लिये
अपने अंतर्मन में 
इच्छा को जिंदा पाएं
बाकी सब तरह की मित्रताएं  
 अवसरवादी,सतही एवम  
कम आयु की होती हैं"
डा.राजेंद्र तेला "निरंतर"
22-06-2011

विपत्ती और सब्र

विपत्ती के समय में इंसान विवेक खो देता है ,
स्वभाव में क्रोध और चिडचिडापन आ जाता है.
बेसब्री में सही निर्णय लेना व् उचित व्यवहार 
असंभव हो जाता है.
लोग व्यवहार से खिन्न होते हैं , 
नहीं चाहते हुए भी
समस्याएं सुलझने की बजाए उलझ जाती हैं
जिस तरह मिट्टी युक्त गन्दला पानी
अगर बर्तन में कुछ देर रखा जाए तो
मिट्टी और गंद पैंदे में नीचे बैठ जाती है ,
उसी तरह विपत्ती के समय 
शांत  रहने और सब्र रखने  में ही भलाई है.
धीरे धीरे समस्याएं सुलझने लगेंगी
एक शांत मष्तिष्क ही सही फैसले और 
उचित व्यवहार कर सकता है.
 डा.राजेंद्र तेला, निरंतर
22-06-2011

Sunday, June 19, 2011

अनुसरण

मंगलवार, २१ जून २०११

आज का सद़विचार '' अनुसरण ''


मनुष्य निरंतर दूसरों का अनुसरण करता है,
उनके जीवन से प्रभावित हो कर या उनके कार्य कलापों से प्रभावित होता है 
अधिकतर अन्धानुकरण ही होता है .
क्यों किसी ने कुछ कहा ? 
किन परिस्थितियों में कुछ करा या कहा कभी नहीं सोचता .
परिस्थितियाँ और कारण सदा इकसार नहीं होते, 
महापुरुषों का अनुसरण अच्छी बात है 
फिर भी अपने विवेक और अनुभव का इस्तेमाल भी आवश्यक है.
यह भी निश्चित है जो भी ऐसा करेगा उसे विरोध का सामना भी करना पडेगा.
उसे इसके लिए तैयार रहना पडेगा .
अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो केवल मात्र एक या दो ही महापुरुष होते .
नया कोई कभी पैदा नहीं होता .
इसलिए मेरा मानना है 
जितना ज़िन्दगी को करीब से देखोगे .
अपने को दूसरों की स्थिती में रखोगे तो स्थितियों को बेहतर समझ सकोगे ,
जीवन की जटिलताएं स्वत:सुलझने लगेंगी


- राजेंद्र तेला

आज सद़विचार पर हैं ... राजेन्‍द्र तेला जी ब्‍लॉग जगत से ...

5 टिप्पणियाँ:

अनुपमा त्रिपाठी... ने कहा…
बहुत सही लिखा है ...!! आभार.
सुज्ञ ने कहा…
विवेक को स्थान!!
Kailash C Sharma ने कहा…
अंधानुकरण कभी श्रेयस्कर नहीं है..
ZEAL ने कहा…
Beautiful thought
Veena Sharma ने कहा…
बहुत सच कहा है...