इच्छाओं के नियंत्रण से ही
सफलता की सुरभि फैलती है।
इच्छाओं की टकराहट से
व्यक्तित्व की बहुमूल्य ऊर्जा नष्ट होती है
और सर्वत्र असफलता हाथ लगती है।
इच्छाओं का जागृत होना,
मानवीय स्वभाव का अंग है।
इस में विकृति तब पैदा होती है,
जब ये इच्छाएं आपस में टकराती हैं।
जब इच्छाएं हमारी क्षमता से अधिक होती हैं,
तो व्यक्तित्व में विसंगतियां पैदा होने लगती हैं।
जब ये इच्छाएं परिस्थितियों से मेल नहीं खाती हैं,
तो हमारी सामाजिक समरसता में भी
कडवाहट घुलने लगती है।
इससे हमारा पारिवारिक जीवन भी
प्रभावित होने लगता है।
इच्छाओं का जागृत होना स्वाभाविक है,
परंतु सद्इच्छाएं ही हमारे जीवन को
सन्मार्ग की तरफ प्रेरित करती हैं।
तभी हमारा जीवन खुशहाल एवं समृद्ध हो पाता है।
इसके उलट क्षूद्र इच्छाएं जीवन में
दु:खों के कांटे बिखेरती हैं
और जीवन कंटकाकीर्ण हो उठता है।
मन अशांत एवं उद्विग्न हो जाता है,
जिससे जीवन की दशा और दिशा दोनों ही
बुरी तरह से प्रभावित होती है।
बुलबुले के समान ऐसी इच्छाएं,
एक अनिश्चित अंतराल में उठती-गिरती रहती हैं,
जिससे मन आक्रांत हो उठता है।
इच्छाओं को उठने से रोकना कठिन है,
परंतु इन्हें सुव्यवस्थित
एवं नियंत्रित किया जा सकता है।
हमें यह देखना चाहिए कि हम जो चाहते हैं,
उसे पाने के लिए हमारे पास
यथार्थ रूप में योग्यता और क्षमता है भी या नहीं?
यदि नहीं, तो ऐसी चाहत हमें दु:खों के दलदल में
डूबने-उतरने के लिए बेसहारा छोड देंगी।
सामान्य जीवन में व्यक्ति के दुखों का मूल कारण
अनंत इच्छाओं का पनपना है।
इच्छाएं उठती हैं और हमें लुभाती हैं।
साधन की प्राप्ति में एक के बाद
दूसरे की चाहत जागती है
और इस अंतहीन सिलसिले में हम
जीवनपर्यत पिसते रहते हैं।
एक श्रेष्ठ चाहत हमारे जीवन को
बदलने में सक्षम होती है
और एक बुरी कामना जीवन को गहरे दलदल में
धकेलने के लिए पर्याप्त होती है।
अत: हमें श्रेष्ठ एवं मंगल कामना करनी चाहिए,
ताकि व्यक्तित्व कई आयामों से प्रस्फुटित हो सके
[अखंड ज्योति,पत्रिका से साभार]
05-04-2011
05-04-2011
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